Sunday 4 September 2016

याद आता है

 याद आ जाती हैं माँ की कसकर दो चोटी बनाकर रिबन का फूल बनाना। तरह-तरह की फ्रिल वाली फ्रांके बनाना फिर पहना कर अपनी बिटिया को निहार कर प्यार करना और काला टीका लगाना, वो ममता भरी आँखें मेरा हर जगह पीछा करती हैं वह ममता मुझे झकझोर देती हैं जब कि भागती-दौड़ती सी माँए शर्टस और टॉप पहने बेटियों को  सुबह से शाम ट्यूशन पर भेजती अपेन माथे के पसीने के पोंछती रहती हैं । ममता के लिये समय है ही नहीं। उनका प्यार बर्थडे विश करते केक काटने में और गिफ्ट देने में झलकता है । प्यार एक कर्तव्य का वेष बदल कर आया है न कि तीज का त्यौहार मनाने के लिए बिटिया की हथेली को चूमती उस पर मेंहदी काढ़ती माँ । लंहगा-चुनरी पहना कर झूला आँगन में डालकर मॉं कजरी गाती तो कितना इठता इठला जाते। बार बार चिपका कर माँ गले में बांहे डाल लेती। पूरे सावन में आँगन के टट्टर पर पड़ा झूला हमारे अस्तित्व को स्वीकारता था। उस माँ की नरम-गरम गोद याद करते ।  पर कहाँ बन पाई वह माँ दो दो साल के बच्चों के मैंने भी भेज दिया था कान्वेंट में पढ़ने । जरा सा बड़ा होने पर चले गये बाहर फिर बाहर और बाहर, माँ होने का फर्ज निभाया है। दोनों सोये हुए बच्चों के माथे को चूमकर उस ममता को याद कर मेरा तकिया भीगने लगा है। 

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